दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म
जैन धर्म को श्रमणों का धर्म कहा जाता है। वेदों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ
का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि वैदिक साहित्य में जिन यतियों और
व्रात्यों का उल्लेख मिलता है वे ब्राह्मण परंपरा के न होकर श्रमण परंपरा
के ही थे। मनुस्मृति में लिच्छवि, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रियों को व्रात्यों
में गिना है। जैन
धर्म का मूल भारत की प्राचीन परंपराओं में रहा है। आर्यों के काल में
ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा का वर्णन भी मिलता है।
महाभारतकाल में इस धर्म के प्रमुख नेमिनाथ थे। जैन
धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे। जैन
धर्म ने कृष्ण को उनके त्रैसष्ठ शलाका पुरुषों में शामिल किया है, जो बारह
नारायणों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि अगली चौबीसी में कृष्ण जैनियों
के प्रथम तीर्थंकर होंगे। ईपू
आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म काशी में हुआ
था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म भी हुआ था। इन्हीं
के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है। भगवान
पार्श्वनाथ तक यह परंपरा कभी संगठित रूप में अस्तित्व में नहीं आई।
पार्श्वनाथ से पार्श्वनाथ संप्रदाय की शुरुआत हुई और इस परंपरा को एक
संगठित रूप मिला। भगवान महावीर पार्श्वनाथ संप्रदाय से ही थे। जैन
धर्म में श्रमण संप्रदाय का पहला संप्रदाय पार्श्वनाथ ने ही खड़ा किया था।
ये श्रमण वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। यही से जैन धर्म ने अपना अगल
अस्तित्व गढ़ना शुरू कर दिया था। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ
बौद्ध तथा कुछ जैन हो गए। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएं बना ली। ईपू
599 में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने तीर्थंकरों के धर्म और परंपरा को
सुव्यवस्थित रूप दिया। कैवल्य का राजपथ निर्मित किया। संघ-व्यवस्था का
निर्माण किया:- मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। यही उनका चतुर्विघ संघ
कहलाया। भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में देह त्याग किया। भगवान महावीर के काल में ही विदेहियों और श्रमणों की इस परंपरा का नाम जिन (जैन) पड़ा, अर्थात जो अपनी इंद्रियों को जीत लें।
धर्म पर मतभेद : अशोक
के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उनके समय में मगध में जैन धर्म का
प्रचार था। लगभग इसी समय, मठों में बसने वाले जैन मुनियों में यह मतभेद
शुरू हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियां कपड़े पहनाकर रखी जाए या नग्न अवस्था
में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन मुनियों को वस्त्र पहनना चाहिए या
नहीं। आगे
चलकर यह मतभेद और भी बढ़ गया। ईसा की पहली सदी में आकर जैन धर्म को मानने
वाले मुनि दो दलों में बंट गए। एक दल श्वेतांबर कहलाया, जिनके साधु सफेद
वस्त्र (कपड़े) पहनते थे, और दूसरा दल दिगंबर कहलाया जिसके साधु नग्न (बिना
कपड़े के) ही रहते थे।
श्वेतांबर और दिगंबर का परिचय : भगवान
महावीर ने जैन धर्म की धारा को व्यवस्थित करने का कार्य किया, लेकिन उनके
बाद जैन धर्म मूलत: दो संप्रदायों में विभक्त हो गया: श्वेतांबर और
दिगंबर। दोनों
संप्रदायों में मतभेद दार्शनिक सिद्धांतों से ज्यादा चरित्र को लेकर है।
दिगंबर आचरण पालन में अधिक कठोर हैं जबकि श्वेतांबर कुछ उदार हैं।
श्वेतांबर संप्रदाय के मुनि श्वेत वस्त्र पहनते हैं जबकि दिगंबर मुनि
निर्वस्त्र रहकर साधना करते हैं। यह नियम केवल मुनियों पर लागू होता है। दिगंबर
संप्रदाय मानता है कि मूल आगम ग्रंथ लुप्त हो चुके हैं, कैवल्य ज्ञान
प्राप्त होने पर सिद्ध को भोजन की आवश्यकता नहीं रहती और स्त्री शरीर से
कैवल्य ज्ञान संभव नहीं; किंतु श्वेतांबर संप्रदाय ऐसा नहीं मानते हैं। दिगंबरों की तीन शाखा हैं मंदिरमार्गी, मूर्तिपूजक और तेरापंथी, और श्वेतांबरों की मंदिरमार्गी तथा स्थानकवासी दो शाखाएं हैं। दिगंबर
संप्रदाय के मुनि वस्त्र नहीं पहनते। 'दिग्' माने दिशा। दिशा ही अंबर है,
जिसका वह 'दिगंबर'। वेदों में भी इन्हें 'वातरशना' कहा है। जबकि श्वेतांबर
संप्रदाय के मुनि सफेद वस्त्र धारण करते हैं। कोई 300 साल पहले
श्वेतांबरों में ही एक शाखा और निकली 'स्थानकवासी'। ये लोग मूर्तियों को
नहीं पूजते। जैनियों
की तेरहपंथी, बीसपंथी, तारणपंथी, यापनीय आदि कुछ और भी उपशाखाएं हैं। जैन
धर्म की सभी शाखाओं में थोड़ा-बहुत मतभेद होने के बावजूद भगवान महावीर तथा
अहिंसा, संयम और अनेकांतवाद में सबका समान विश्वास है।
गुप्त काल : ईसा
की पहली शताब्दी में कलिंग के राजा खारावेल ने जैन धर्म स्वीकार किया। ईसा
के प्रारंभिक काल में उत्तर भारत में मथुरा और दक्षिण भारत में मैसूर जैन
धर्म के बहुत बड़े केंद्र थे। पांचवीं
से बारहवीं शताब्दी तक दक्षिण के गंग, कदम्बु, चालुक्य और राष्ट्रकूट
राजवंशों ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन
राजाओं के यहां अनेक जैन मुनियों, कवियों को आश्रय एवं सहायता प्राप्त होती
थी। ग्याहरवीं
सदी के आसपास चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज और उनके पुत्र कुमारपाल ने जैन
धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया तथा गुजरात में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार
किया गया।
मुगल काल : मुगल
शासन काल में हिन्दू, जैन और बौद्ध मंदिरों को आक्रमणकारी मुस्लिमों ने
निशाना बनाकर लगभग 70 फीसदी मंदिरों का नामोनिशान मिटा दिया। दहशत के
माहौल में धीरे-धीरे जैनियों के मठ टूटने एवं बिखरने लगे लेकिन फिर भी जैन
धर्म को समाज के लोगों ने संगठित होकर बचाए रखा। जैन धर्म के लोगों का
भारतीय संस्कृति, सभ्यता और समाज को विकसित करने में बहुत ही महत्वपूर्ण
योगदान रहा है। इति।