परम पूज्य आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज, जिन्होंने पिछले 43 वर्षों से मीठे (शक्कर) तथा नमक का त्याग कर रखा है, बमुश्किल 3 घंटे की नींद लेते हैं और इसी तप-साधना से अपनी इंद्रिय शक्ति को नियंत्रित कर केवल एक करवट सोते हैं। मल-मूत्र विसर्जन भी अपने नियम के निर्धारित समयानुसार ही करते हैं।
दिगंबर जैन परंपरा के संत आचार्य विद्यासागरजी एवं मुनिजनों की त्याग परंपरा का विलक्षण व आदर्श उदाहरण हैं। आचार्यश्री ने पिछले 43 वर्ष से मीठे व नमक तथा पिछले 38 वर्ष से रस व फल का त्याग किया हुआ है। उन्होंने 19 वर्ष से रात्रि विश्राम के समय चटाई तक का भी त्याग किया हुआ है। 22 वर्ष से सब्जियों व दिन में सोने का भी त्याग कर रखा है। 26 वर्ष से मिर्च-मसालों का त्याग किए हुए हैं। आहार में सिर्फ दाल, रोटी, दलिया, चावल, जल, दूध ही लेते हैं और जैन आगम की परंपरा का पालन करते हुए दिन में केवल एक बार कठोर नियमों का पालन खड्गासन मुद्रा में हाथ की अंजुलि में भोजन लेते हैं। भोजन में किसी भी प्रकार के सूखे फल, मेवे और किसी भी प्रकार के व्यंजनों का सेवन भी नहीं करते। दिगंबर जैन परंपरा के अनुरूप परम तपस्वी विद्यासागरजी वाहन का उपयोग नहीं करते हैं, न शरीर पर कुछ धारण करते हैं। पूर्णतः दिगंबर (नग्न) अवस्था में रहते हैं। भीषण सर्दियों व बर्फ से ढंके इलाकों में भी दिगंबर जैन परंपरा के अनुरूप जैन साधु नग्न ही रहते हैं और सोने के लिए लकड़ी के तख्त का ही इस्तेमाल करते हैं। पैदल ही विहार करते हुए वे देशभर में हजारों किलोमीटर की यात्रा कर चुके हैं। वाहन दिगंबर जैन परंपरा के साधु-साध्वियों के लिए वर्जित है। देश-विदेश से आम और खास सभी इस तपस्वी से सेवा, अर्जन केवल जरूरत के लिए, अपरिग्रह व जीवमात्र से दया चाहे वह वनस्पति हो या जीव, स्त्री शिक्षा, अहंकार त्यागने, नि:स्वार्थ भावना से कमजोर की सेवा करने जैसी सामान्य सीख की 'मंत्र दीक्षा' लेने आते हैं। शायद गुरुवर की विशेषता यही है कि उनके पास श्रद्धालु उनके घोर तप से प्रभावित होकर किसी चमत्कारिक मंत्र के लिए नहीं, बल्कि इन सीधे-सादे मंत्रों को पाने आते हैं'। आचार्यश्री विद्यासागरजी एक महान संत के साथ-साथ एक कुशल कवि, वक्ता एवं विचारक भी हैं। काव्य रुचि और साहित्यानुराग उन्हें विरासत में मिला है। कन्नड़ भाषी, गहन चिंतक गुरुवर प्रकांड विद्वान हैं, जो प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी, मराठी, बंगला और अंग्रेजी में निरंतर लेखन कर रहे हैं। उनकी चर्चित कालजयी कृति ‘मूकमाटी’ महाकाव्य है। यह रूपक कथा-काव्य, अध्यात्म दर्शन व युग चेतना का अद्भुत मिश्रण है। दरअसल यह कृति शोषितों के उत्थान की प्रतीक है कि किस तरह पैरों से कुचली जाने वाली माटी मंदिर का शिखर बन जाती है, अगर उसे तराशा जाए। देश के 300 से अधिक साहित्यकारों की लेखनी मूक माटी को रेखांकित कर चुकी है। लगभग 300 से अधिक साधु-साध्वियों के आचार्यजी के संघ में एमटेक, एमसीए व उच्च शिक्षा प्राप्त साधु हैं, जो संसार को त्यागकर अपनी खोज और आत्मकल्याण की साधना में रत हैं। ये सभी अपने इस जीवन को जीवन की पूर्णता मानते हैं। 22 वर्ष की आयु में अपने गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी से दीक्षा लेने वाले गुरुवर के जीवन की एक अप्रतिम घटना यह है कि उनके गुरु ने अपने जीवनकाल में आचार्य पद अपने इस शिष्य को सौंपकर अपने इस शिष्य से ही समाधिमरण सल्लेखना (जैन धर्मानुसार स्वेच्छा मृत्यु वरण) ली। आचार्यश्री की प्रेरणा से उनसे प्रभावित श्रद्धालु समाज कल्याण के अनेक कार्यक्रम चला रहे हैं जिनमें स्त्री शिक्षा, पशु कल्याण, पर्यावरण रक्षा, अस्पताल जैसे कितने ही कार्यक्रम हैं। खास बात यह कि तपस्वी संत वर्षा योग चातुर्मास के तौर पर नैतिक मूल्यों पर आधारित बच्चियों की शिक्षा के लिए प्रतिभा स्थली एक अनूठा प्रयोग माना जाता है। मध्यप्रदेश के जबलपुर स्थित इस संस्थान की सफलता के बाद इसकी एक शाखा अब प्रदेश के डूंगरपुर में भी खोली गई है। गुरुवर फिरहाल मध्यप्रदेश के सागर जिले के बीना बारहा में ससंघ विराजमान है, जहां देशभर से बड़ी तादाद में श्रद्धालु उनके दर्शन तथा प्रवचन के लिए आ रहे है !
दिनाँक: ३०/०३/२०१५ स्थान: सागर