हाइकू – मुनिश्री योगसागर महाराज जी

हाइकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। मुनि श्री योगसागर जी महाराज ने 400 से ज्यादा हाइको लिखे हैं। आपका जन्म: १३ सितम्बर १९५६ दिन: गुरूवार, को ग्राम सदलगा कर्नाटक में हुआ था। ब्रह्मचर्य व्रत: २ मई १९७५, क्षुल्लक दीक्षा: १८ दिसंबर १९७५, ऐलक दीक्षा: १८ अप्रैल १९७७, मुनि दीक्षा: १५ अप्रैल १९८० (सागर मध्यप्रदेश) आप आचार्य भगवन जी के गृहस्थ जीवन के छोटे भाई हैं। 

1 – मृत्यु अमर, यहाँ कौन दिखेगा, अमर यहाँ।
2 – तू ना समझा, नश्वर के शरण, में अशरण।
3 – विकृत वस्तु, के परिणमन का, नाम संसार।
4 – तू है चिद्रूप, पर क्यों रूप बना, तेरा विद्रूप।
5 – रूप कुरूप, से परे अरूप है, तेरा स्वरुप।
6 – भग्न घट सी, काया निशदिन ही, मॉल झराये।
7 – योगों की क्रिया, जिसकी प्रतिक्रिया, कर्मास्रव है।
8 – बाहर नहीं, भीतर निहारना, निरास्रव है।
9 – अनगार की, ध्यान की चिनगारी, कर्म जलाये।
10 – कहीं निहाल, तो कहीं है बेहाल, जग का हाल।
11 – कारागार को, जिनालय बनाना, अतिदुर्लभ।
12 – वही है धर्म, विष को सुधामय, परिणमाये।
13 – पुष्प महके, अलिदल दौड़ते, ना ही बुलाते।
14 – काँटों के बीच, गुलाब का जीवन, कैसी ग़ुलामी।
15 – अमल करो समल विमल हो ज्यों कमल सा।
16 – क्षणभंगुर, अंगुर पे झूमते, ज्यों लंगुर से।
17 – भीतर नहीं, बाहर निहारना, पापास्रव है।
18 – प्रदर्शन तो, मृगमरीचिका है, केवल धोका।
19 – वैराग्य पुष्प, जीवन उद्यानों को, महकता है।
20 – जिन्हें जाप से, ताप सा प्रतीत हो, उन्हें क्या कहें।
21 – मंगलमय, देव गुरु शास्त्र को, मम प्रणाम।
22 – जिसके तुम, हवाला दे उनके, क्या हवाला हो।
23 – शांत चित्त ही, सा शास्त्रों का ज्ञाता, चेतन कृति।
24 – कांच सा प्याला, तेरी सुन्दर काया, कब क्या होगा।
25 – जिसे जिनसे, शल्य हो उनसे क्या, प्रयोजन है।
26 – ये सुख दुःख, तेरे परिणामों का, परिपाक है।
27 – पुरुषार्थ की, चमक झलकती है, भाग्योदय में।
28 – चिंता न करो, सफलता मिलती, चिंतन से ही।
29 – असुंदर में, सुन्दर का निवास, मोह की नशा।
30 – तेरा स्वरुप, सुख दुःख से परे, ज्ञाता दृष्टा है।
31 – पूजनीय वे, कर्ता भोक्ता औ स्वामी, पन से परे।
32 – वक्त पर जो, भक्त बनता वह, विभक्त होता।
33 – भेद विज्ञान, अंतर जगत का, दिवाकर है।
34 – पुण्योदय में, गाफिल, पापोदय, होश हवास।
35 – मल पिटारा, में बहुमूल्य हीरा, कब से गिरा।
36 – जात पात से, परे यथा जात जो, पारिजात सा।
37 – त्रैलोक्य में है, जीवों का प्रिय यार, शुद्ध बयार।
38 – कविता गायें, ह्रदय की गंथियाँ, हम गलाये।
39 – सुनो हायको, कर्मों की चमत्कार, तुम परखो।
40 – प्रभावित हो, उपादान निमित्त, प्रभाव डाले।
41 – एक दिन तो, मरना है कल्याण, मेरा कैसे हो।
42 – प्रत्येक श्वास, , यमपुर की ओर, बढे कदम।
43 – कर्तव्यता में, दक्षता ही शिष्य की, गुरु दक्षिणा।
44 – एक क्षण भी, संत संग अनंते, पाप नशाये।
45 – शीतलमयी, क्षमोत्तम नीर से, क्रोधाग्नि बुझे ,।
46 – मार्दव फल, विनय द्रुम पर, ‘ ही फलता है।
47 – औपचारिक, निर्गंध पुष्प, निज को छलता है।
48 – तन तिनका, समझेगा तभी तो, हीरा दिखेगा।
49 – असुंदर क्या, असुंदर से कभी, सुन्दर होगा।
50 – अहंकार के, अलंकार से प्राणी, अलंकृत है।

51 – समयसार, की आराधना निजकी, आराधना है।
52 – मर्म सहित, कर्म में धर्म है ये, शर्म दिलाये।
53 – मान को त्यागो, मानवर्धमान हो, सन्मान मिले।
54 – माया का जाल, आर्जव कृपान से, काटा जाता है।
55 – मुनि वैद्य है, जन्म जरा मृत्यु के, रोग निवारे।
56 – वायदा में ना, फायदा यही यहाँ, का है कायदा।
57 – लोभ अशुचि, पावन संतोष से, धुल जाता है।
58 – रत्नत्रय का, सुन्दर संदूक तो, दिगम्बरत्व।
59 – अज्ञान धरा, पे भय के अंकुर, उग आते हैं।
60 – परिग्रह का, प्रायश्चित दान तो, अभिमान क्यों।
61 – संतो का कोई, पन्थ नहीं आगम, ही पन्थ रहा।
62 – समता में जो, रमता भवदधि, वह तिरता।
63 – यम नियम, संयम तप ये आत्मा पर, करें रहम।
64 – अहंकार के चने, प्रशंसा नीर में फूल जाते।
65 – व्यवहार की कुशलता, ज्ञान की परिस्कृस्त्ता।
66 – झूट बोलना, स्व पर पे स्वयम, मूठ मारणा।
67 – नजरिया को, नज़र अन्दाज हो, नज़र आये।
68 – वीतरागी को, श्रृंगार अंगार सा, प्रतीत होता।
69 – अहंकार की, झंकार ममकार, की प्रतिध्वनि।
70 – मोहब्बत की, सौबत में नौबत, मुसीबत की।
71 – वचन पुष्प, गुरु के महकते, ना मुरझाते।
72 – धर्म वही है, जीवन में अहिंसा, दीप जलाये।
73 – प्रत्येक प्राणी, अपने आप से ही, परेशान है।
74 – बोलचाल से, व्यक्तिगत स्वाभाव, ज्ञात होता है।
75 – ना मै देह हूँ, मृत्यु मुझे क्या डर, दिखा सकती।
76 – अपने आप, को जानता उसे ना, भय सताता।
77 – कागज स्याही, के बीच जो रहस्य, ज्ञान वही है।
78 – दिगम्बर से, चिदम्बर अम्बर, पे ना निवास।
79 – ज्ञान कुठार, काया है मुठ कांटे, विधि द्रुम को।
80 – काया कावडी, कर्मों के भार लिये, आत्मा ढोती है।
81 – नर काया तो, जहाज भवादधि, तुम्हे तिराये।
82 – बुराई कोई, चीज नहीं भलाई, पे लगा जंग।
83 – जो प्रशंसा को, चाहे वो योग्यता से, कंगाल ही है।
84 – द्रव्य झल के, समता दर्पण में, पर्याय गौण।
85 – आप जो चाहो, दूसरों को भी चाहो, धर्म यही है।
86 – सच्चे स्नेही की, पहचान सेवा से, नाही बातों से।
87 – परमात्मा को, जिससे मिलन हो, वह योग है।
88 – दुःख संयोग, जिससे वियोग हो, वह योग है।
89 – तुम हिम हो, तपन अनुभव, क्यों करते हो।
90 – तुम सूर्य हो, मोमबत्ति में हर्ष, क्यों मानते हो।
91 – अर्जित धन, परिमार्जित होता, दान धर्म से।
92 – मै के मही में, अहंकार खटास, मानी का पेय।
93 – आत्मीय क्षीर, वात्सल्य मिठास से, छलकता है।
94 – चारित निष्ठ, ज्ञान अवा में पका, कुम्भ की भान्ति।
95 – असंयमी का, ज्ञान मद धुम्र सा, घना पावक।
96 – सत्य का रत्न, श्रमण जौहरी का, गले का हार।
97 – स्वर्गाय वर्ग, का अनन्य साधन, अहिंसा धर्म।
98 – सदभाव पुष्प, प्रभावना गंध से, महकता है।
99 – काल मृत्यु को, उपहार रूप में, सबको बांटे।
100 – यह काया तो, कागज नाव काल, जल में गले।
101 – तुम जौहरी, कांच के टुकड़े क्यों, बटोरते हो।
102 – तुम अमूर्त, तन की चिन्ता सदा, सताती क्यों है।
103 – मुक्ति की मुक्ता, , समता स्वाति नीर, से पैदा होती।
104 – अभव्यनोन, मिश्रित क्षीर घी की, कल्पना व्यर्थ।
105 – अनेकांत की, , सुधा स्यादवाद प्याले, से पान करे।
106 – तेरे मेरे के, ताना बाना से बना, संसार जाल।
107 – मानतुंग है, उतुंग पतंग से, मानजीत के।
108 – अपने आप, के अवलोकन से, भय का अन्त।
109 – पर्वतीय गुफा, में अनादी से जोत, जल रही है।
110 – ये नर तन, रतन न रतनो, का संदूक है।
111 – कर्त्तव्य निष्ठ, व्यक्ति को कोई कार्य, दुष्कर नहीं।
112 – ऐसी साधना, साधना सी सुरभि, सुरभित है।
113 – गुरु प्रसन्न, आज्ञा पालन से ना, ही प्रशंसा से।
114 – हिमखंड सी, समता विकल्पों की तरंगे नहीं।
115 – कल्याण वास्ते, आज्ञा का पालन ही गुरु सेवा है।
116 – संघर्षमयजीवन बने हर्ष, आदर्शमय।
117 – महाराज को, जाने वे महाराज, वन्द्य होते हैं।
118 – वक्त पर जो, रक्त बहाये देश, के वे शहीद।
119 – पुरुषार्थ ही, देव बनके फल, प्रस्तुत करे।
120 – नश्वर में है, अविनश्वर ये ही, परमेश्वर।
121 – दृश्य में छिपा, अदृश्य आदर्श सा, सदृश वाला।
122 – सरोवर में, जाकर भी पंक में, पग फसते।
123 – अहिंसा पुष्प, आसक्ति लता पर, नहीं खिलता।
124 – प्रतिशोध की, भावना का न होना, उत्तम क्षमा।
125 – रोष में नहीं, संतोष जहाँ क्षमा, वहां संतोष।
126 – सब लिखते, पर नहीं लखते, सो बिलखते।
127 – जो विभक्त को, अविभक्त करता, वही भक्ति है।
128 – व्यक्तिगत जो, भक्ति परमार्थ से, विभक्त करे।
129 – पत्थर मित्र, सात में असाता में, मित्र पत्थर।
130 – गमनाशक, रहम सो रहीम, बनना होगा।
131 – गुरु रहम, बाटते इसलिये, ये रहीम है।
132 – कैसा आश्चर्य, म्यान से तलवार, जंघ खा रहा।
133 – धनाभाव में, निर्धन इंधन सा, जलता ही है।
134 – धनी धन के, वियोग में उसका, निधन होता।
135 – आस्था का रास्ता, टूटा हो अपघात, अवश्य होता।
136 – भवितव्य का, बीज पुरुषार्थ की, माटी में फले।
137 – घृत को पाना, सहज पाचनता, सरल नहीं।
138 – ऐसा खुदा है, खुदा बनोगे तब, खुदा दिखेगा।
139 – नर पर्याय, ये अनोखा नौका है, मौका ना चूके।
140 – प्रत्येक वार, प्रत्येक वार करे, ध्यान है कहाँ।
141 – तलवार से, ना डरो तलवार, वाले से डरो।
142 – विश्वास लता, मृषा की तुषार से, जल जाती है।
143 – वडवानल, तृष्णा की तृषा सिंधु, बिंदु सी लगे।
144 – सर्व शास्त्रों का, ज्ञाता वही जिसका, चित्त शान्त है।
145 – श्रद्धा की आँखे, शिवपथ चलाती, शिव दर्षाती।
146 – तेरी नज़र, बदनज़र की भी, नज़र फिरे।
147 – मौत तूफां में, तन तिनका कब, ये उडजाये।
148 – राग और द्वेष, बहिर जगत का, प्रदूषण है।
149 – चित्त की शांति, संतोषाश्रित ना कि, द्रव्याश्रित है।
150 – दिगम्बरत्व, शब्दातीत प्रष्नों का, उत्तर देता।
151 – आलोचना को, वो करें अन्तस के, लोचन नहीं।
152 – जो हरि है ओ, जौहरी है तुम भी, जौहरी बनो।
153 – विख्यात नहीं, मुझे होना पाना है, यथाख्यात को।
154 – पुष्प जीवन, एक दिन सुरभि, अमर हुई।
155 – श्याम कहते, जिंदगी श्याम हुई, श्याम ना मिले।
156 – आतम में है, आतम इसलिये, बहिरातम।
157 – मोह रावण, रत्नात्रय रेखायें, लाँघता कैसे।
158 – कमल चले, पर जीवों का कहीं, कलम ना हो।
159 – सदभावना की, ज्योति प्रभावना की, आलोक पुंज।
160 – सदविचारों से, परिणत आचार, सद्प्रचार है।
161 – असि धारा पेच, लने वाले असि, को ना चलाये।
162 – तलवार से, नहीं हिंसावाणी के, दुरूपयोग।
163 – तेरा भूषण, आभूषण से नहीं, सदाचार से।
164 – जैसा दिखता, , वैसा न रहता सो, जगपसता।
165 – तेरी वस्तु है, तेरे पास पर तू, जगह चूका।
166 – सत्य अहिंसा, ये दो आलोक पुंज, धर्म के आँखें।
167 – राम बाण है, संयम पराजित, होता यम भी।
168 – गोदुग्ध सुधा, हिंसक उर में भी, अहिंसा जगे।
169 – नकली सोना, असली से अधिक, चमकता है।
170 – संत देखता, संयम मुकुर में, निज स्वरूप।
171 – माया के पीछे, मायाचार दुनिया, माया बाजार।
172 – ये काया तुंबी, है विषैला इसी से, भवाब्धितिरे।
173 – दृष्य को देख, दृष्टा को भूलना ही, अविवेक है।
174 – वनराज हो, मुषक से बिल में, क्यों तुम बसे।
175 – पारदर्शक, जीवन हो काँच सा, दर्पण नहीं।।
176 – देह दही को, दण्डित करे तो क्यों। दह दासता।
177 – भक्त की भक्ति, सर्वोपरि जो सदा, प्रसन्नता में।
178 – चर्म में नहीं, शर्म शर्म का धाम, चर्म में छिपा।
179 – प्रदर्शन तो, प्रदुर्षण विकृत, हुआ दर्शन।
180 – अमा की रात, मार्दव का मनीका, रात पूनम।
181 – आकर्षण के, अभाव में जीवन, उत्कर्ष होगा।
182 – हिंसा को करें, परिहार निज में, करें विहार।
183 – अहम का है, जहाँ वहम वहाँ, है ना रहम।
184 – पिंजड़े को ही, निज नीड़ समझे, पंच्छी ओ मूर्ख।
185 – लालसाओं में, ना लाल सा स्व लाल, निजाधीन है।
186 – जहाँ सन्देह, वहाँ दिल से दिल, फ़ासले दिखे।
187 – गुरुवाणी है, खुर्माणी क्यों नहीं, सुने नादानी।
188 – राहु ग्रसित, अनन्तानन्त सूर्य, दिखाई देते।
189 – रंग बिरंगी, तरंगें उठ रही, अन्तरंग में।
190 – समयसार, गाथा तेरी जीवन, गाथा को गाऐं।
191 – सुख-दु:ख के, आवेग को सम्हालें, वह योगी है।
192 – तेरी प्रवृत्ति, तुझे ही अध: उर्ध्व, मुखी बनाती।
193 – कवि है रवि, अन्तर जगत को, रोशन करें।
194 – मैं एक बीज, जिससे घोर घने, जंगल बने।
195 – बिन कारण, कषाय करें पूर्व, जन्म का बैरी।
196 – गीली लकड़ी, जले कम धूम ही, ज़्यादा निकालें।
197 – वीतरागी की, आराधना किसी की, ना विराधना।
198 – भूल स्वीकारो, भूल सुधारो कभी, भूल ना करो।
199 – कल्याण से ना, कल्याण है कल्याण, तजो कल्याण।
200 – वर्णातीत है, तेरी आत्मा दृष्टि क्यों, चर्म वर्ण पे।
201 – कुल्हाड़ी मिली, लेकिन बे डण्डी की, मूठ लगी है।
202 – गद्य-पद्य में, यमक नमक सा, सरस लाए।
203 – रवि शब्द को, विलोम कर पढ़ो, वीर का दर्श।
204 – शास्त्र सुनाते, हरि से हरि बने। तुम तो नर।
205 – मोह का ताज, सकने लग ये सो, मोहताज हैं।
206 – वैराग्य कली, ध्यान सूर्योदय में, खिले महके।
207 – पाप- पुण्य को, खेल को जीतो मिले, मुक्ति अवार्ड।
208 – वह क्यों तुम, कहते हो जो कभी, करते नहीं।
209 – कर्म को करो, ऐसा जिस कर्म से, कर्म भस्म हो।
210 – कठपुतली, नाच रही चालक, कहीं न दिखे।
211 – ज्ञानी हो के भी, है मूर्ख स्व को नहीं, पर को जाने।
212 – अहिंसा दीप, उर में जलाओ तो, रोज़ दिवाली।
213 – कली काल की, कलि खिली सूर भी, आर्त को लिये।
214 – अर्जित धन, परिमार्जित होता, दान धर्म से।
215 – ज्ञान सरोवर में, महक रहा।
216 – नाम ना चाहो, नाम का विलोम क्या, मना करता।
217 – मौन रहना, मौन का विलोम क्या, नमौ सिद्धाणं।
218 – सूर्योदय में, उड़ चला गगन, नीड का पंछी।
219 – तमन्ना लिये, दरकास्त खुदा को, ना बरदास्त।
220 – मधुर दुग्ध, लवन से बचाये, अन्यथा फटे।
221 – असंयम तो, जंग लगा लोहा सो, बच के चलो।
222 – कली काल की, कली खिली खुश्बू, आर्त को लिये।
223 – प्रशंसा क्या है, शब्दों का झाँग ना है, इसमें सार।
224 – सन्त जो लखे, वही तो लिखे तभी, तो असर है।
225 – रईस बनो, सईस नहीं यही, गुरू की वाणी।
226 – बंट्टे का सोना, मृदुता को खोता यों, ज्ञान मद से।
227 – सूरि की वाणी, बांसुरी सी सुनाये, ब्रह्मनाद को।
228 – कांच का घर, तेरा पर घर पे, पत्थर फेकें।
229 – अध््राुव में क्या, ध्रुव अध््राुवता ही, यहाँ ध््राुव है।
230 – तू ने बनाई, रसोई परोसता, कोई और है।
231 – तपाना होगा, भाजन को दूध को, तपाना है तो।
232 – भगवान् से, राग हुआ धर से, वैराग्य हुआ।
233 – आये थे तुम, दुग्ध पान करने , क्यों छांच पीओ।
234 – कीच के बीच, बीज खीज ना रीज, का फल मिले।
235 – गमला मिला, फूल खिला गमला, सार्थक हुआ।
236 – अमूर्त को भी, मूर्त ने मूर्त किया, ज्यो दूध में घी।
237 – काल यम को, करूणा नहीं कौन, देगा शरण।
238 – नशा में निशा, कोई न दिखे दिशा, हुई दुर्दशा।
239 – दूषित मन, तेरा ही दुष्मन, लड़ो किससे।
240 – सुमन ही तो, तेरा सुमन गंध, बाहार कहाँ।
241 – अचेतन ने, चेतन को जगाया, स्वभान हुआ।
242 – बुझे दीपों को, दीपायन किया ओ, जयवन्त हो।
243 – ऐसे लब्ज को, ना निकालो नब्ज ही, गायब होय।
244 – चैत्यालय तो, बना सुन्दर पर, चैत्य ही नहीं।
245 – जन्म मृत्यु के, भवाब्धि में सतत, लहरे उठे।
246 – गुरू चिराग, जिसके तल नाही, अँधेरा दिखे।
247 – राग चिराग, चिरकाल से द्वेष, काजल छोडे।
248 – अमृत झील, अंतरीक्ष में शान्त, सुषोभित है।
249 – यह ब्रह्माण्ड, अराग विराग औ, राग से भरा।
250 – विद्वान नहीं, ज्ञानी बनो कल्याण, तभी संभव।
251 – उर की ग्रंथी, गले, गले से गले, सहज मिले।
252 – व्यंग भुजंग, दंस से भवान्तर, में भी विषाक्त।
253 – कहते नहीं, सहते आतम में, सदा रमते।
254 – ईक्षु वक्र हो, उसका मीठास क्या, वक्र होता है।
255 – गगन वासि, पंछी को नीड़ से क्यों, चिन्ता सताती।
256 – यों शुक्तिका में, मुक्ता कब से बन्ध, खोल के देखो।
257 – जो वर्णातीत, वर्ण से आवर्णित, है अवर्णनीय।
258 – ऊँचे दर्जे के, पात्रों में ना दोने में, खिलाता हूँ मै।
259 – व्यवधान हो, जिस अवधान से, सावधान हो।
260 – अवसर तो, मिला सर ना मिला, सो ना असर।
261 – तेरे किरण, तेरे को अस्ताचल, लेजाये सूर्य।
262 – तेरा बादाम, तेरे से ही फूटे ना, अन्यों के द्वारा।
263 – यो श्रमण के, नमन से मन भी, सुमन हुआ।
264 – पंकिल काया, पंकज ना खिले तो, क्या मूलय रही।
265 – पत्थर फेके, जो भी सीढ़ी बनाये, मंजिल पाये।
266 – तेरे भाव ही, तेरे को बन्ध – मोक्ष तुझे दिलाये।
267 – दोषों का कोष, रोष जहाँ न होष, ना संतोष है।
268 – जहाँ अनन्ते, सूर्यों का वास वहाँ, तम सभी है।
269 – मानापमान, से परे वर्धमान, मानतुंग है।
270 – बन्दकरना, खिड़कियाँ अन्दर, धूल आ रही।
271 – उठते हुये, तरंगो को निहारो, सच्ची साधना है।
272 – उपयोग का, उपयोग योग के, सयोग से है।
273 – यों जोती पंूज, भास्कर तमस में, क्यों भटक रहा।
274 – वीतरागी के, नस्कार में सदा, चमत्कार है।
275 – ध्यान से सुनो, गुरू कृपा बरसे, गुरू आज्ञ में।
276 – परमार्थ के, पुरूषार्थ में स्वार्थ, अभिषाप है।
277 – चारित्र द्वारा, आगम उजागर, करते साधु।
278 – तुम जौहरी, ज्वार मक्का सौदे में, आनन्दित हो।
279 – परोसते हो, व्यंजन बासी रोटी, तेरी थाली में।
280 – लक्ष्यानुसार, जीवन हो शीघ््रा ही, लक्ष्य की प्राप्ति।
281 – जंगली फूल, हर परिस्थिति में, महकता है।
282 – तेरा तुझे ही, आलोकित ना करे, आलोक कैसा।
283 – डाल का पंछी, कब कहाँ उड़ेगा, किसे पता है।
284 – घोड़े को तुम, खिलाते ही हो कब, सवार होंगे।
285 – दिगम्बरत्व, अन्तर जगत का, प्रवेष द्वार।
286 – भक्ति की शक्ति, अभिव्यक्ति करती, आत्मषक्ति को।
287 – आज्ञा में छिपी, प्रज्ञा कभी न होगी, तेरी अवज्ञा।
288 – अभिलाषायें, जिससे विलीन हो, वह तप है।
289 – वृष्ठी की दृष्टी, सृष्टी पे पड़े सृष्टि, दृष्टि बदले।
290 – वीतराग का, अनुभव हो वही, यथार्थ धर्म।
291 – आम बेचके, मिरच खरीदते, कैसा दुर्भाग्य।
292 – फूल शूल से, बचके चलो तभी, मंजिल मिले।
293 – असत्य ध्वज, कषाय स्तम्भ पे, लहराता है।
294 – अघपर्वत, जिससे पर्व होओ, महापर्व है।
295 – यष कुसुम, ये वाँ वाँ सुगन्ध से, सुगन्धीत है।
296 – आषा की उषा, निराषा की निषा में, डूब जाती है।
297 – परिषयों के, शूलों के बीच खिले, समता फूल।
298 – करो तप को, ऐसा तपन से हो, जीवन मुक्त।
299 – कर्तुत्व बुद्धी, जहाँ जले सतत, चिन्ता की ज्वाला।
300 – लघुतम को, गुरूतम बनाये, गुरूषरण।
301 – छल के द्वारा, छली जाती है वह, भोली मच्छली।
302 – विषधर को, छेडो नहीं अन्यथा, डसता ही है।
303 – विषधरों के, बीच रहते वह, सुधा क्या जाने।
304 – यमराज को, स्वागत में तत्पर, सच्चा अतिथि।
305 – कर्मों का मारा, बुलन्द जीवन भी, पतित होता।
306 – अज्ञानि प्राणी, खाल के ख्याल में, निज को भूला।
307 – मान शून्य हो, मानसुन धारा की धाय, बरस पडे।
308 – तुफा में नाव, बच जाय नाव में, तुफा ना बचे।
309 – आतम में है, आतम इसलिये, बहिरातम।
310 – विधि के बीच, निधी किस विधत, उसे पावोंगे।
311 – चिन्तन एक, मथानि नवनीत, जिससे पाते।
312 – फूल खिलते, मुरझाते मुरझे, फिर ना खिलते।
313 – विकार में तो, आकार अविकार, अनाकार है।
314 – भाग्य रेखा को, पुरूषार्थी ही सही, पढ़ पाता है।
315 – दैव में छिपी, महादेव की शक्ति, दानवता क्यो।
316 – गौर वर्ण का, सूरि सूरज धर्म, भोर फैलाय।
317 – अचेतन से, चेतन होने पर, चेतन दु:खी।
318 – उस बून्द को, चखोगे, पी सकोगे, सागर को भी।
319 – शील झील से, अनल भी बनता, शीतल नीर।
320 – अशुचि पंक, पंकज संगति से, पावन हुआ।
321 – क्षीर नीर भी, मधुर बने-करो, तपाराधना।
322 – सिर्फ ना तुम, बोलना जीवन में, कुछ बोलो भी।
323 – विकास किया, बून्द ने रुप लिया,महा सिन्धू में।
324 – मिली ही नहीं, मंज़िल गाड़ियाँ ही, बदली गयी।
325 – सुप्त भुजंग, भरोसा नहीं कब, वो जग जाए।
326 – मैं शून्य ही था, संख्या के पीछे हुआ, मूल्यता आई।
327 – उपवास में, निवास आवास की, क्या ज़रूरत ?
328 – नेक अनेक, कार्य करें अनेक, एक भी नहीं।
329 – सार्थक बीज, वही है फलदार, वृक्ष बनता।
330 – लहरों से तो, तृष्णा बढ़े नीर से, तृष्णा मिटती।
331 – मोह व मल, अमन में रमन, करे श्रमण।
332 – सर्पों के बीच, नेवलाओं की भाँति, शान से रहो।
333 – अवर्णित को, अनावरणकर्ता, दिगम्बरत्व।
334 – शास्त्र सुनाते, हरी से हरी बने, तुम तो नर हो।
335 – दो शक्तियों का, संघर्ष का कृत्य ही, बना संसार।
336 – वस्तु स्वभाव, जो जानता उसे ना, चिन्ता सताती।
337 – मंज़िल मिले, चढ़ाव-उतार के, बिना नहीं है।
338 – घटाये उठे, सागर से गर्ज के, वही बरसे।
339 – जीवन क्या है ? जी, वन नहीं यह, नन्दनवन।
340 – पंक में खिले, पंकज नहीं खिले, हर पंक में।
341 – वैराग्य हीन, ज्ञान फिके व्यंजन, भाँति लगता।
342 – दर्शक बनो, प्रदर्शक न बनो, दर्शन मिले।
343 – मायूस क्यों हो, पीयूष हो के क्यों कि, आयुष्माधिन।
344 – लघुमति भी, गुरुकुल हो जाती, सुसंयम से।
345 – शुद्ध जल में, पत्थर फेंकने से, मैला न होता।
346 – रत्नत्रय से, रोग धाम काया भी, निरोग बने।
347 – प्रदर्शक ना, बनो दर्शक बनो, दर्शन मिले।
348 – प्रति समय, सुधा पान भय से, आक्रांत क्यों ?
349 – अभिमानी ने, अभिमानी है सुना, गुरुवाणी को।
350 – जिनकी वाणी, जिन ने भी सुनी है, जिन बने हैं।
351 – शिक्षा होती है, जीवन की जीविका, के लिये नहीं।
352 – भू-मण्डल पे, कुण्डल सी प्रतिभा, मण्डल डोले।
353 – रंग-पंचमी, बाहर-भीतर हो, रंग ले बचो।
354 – खुले लोचन, अन्तस के उनकी, क्या आलोचना ?
355 – पाप-पुण्य के, खटक को जीतो मिले, मुक्ति अवार्ड।
356 – वह क्यों तुम, कहते हो जो कभी, करते नहीं।
357 – कर्म को वारो, ऐसा जिस कर्म से, कर्म भस्म हो।
358 – कठपुतली, ना चर ही चालाक, कहीं ना दिखे।
359 – ज्ञानी हो कभी, है मूर्ख स्व को नहीं, पर को जाने।
360 – अहिंसा-दीप, उर में जलाओ तो, रोज़ दिवाली।
361 – कली काल की, कलि खिली सुर भी, आर्त को लिये।
362 – अर्जित धन, परिमार्जित होता, दान-धर्म से।
363 – भूल स्वीकारो, भूल सुधारो कभी, भूल ना करो।
364 – कल्याण सेना, कल्याण है कल्याण, तजो कल्याण।
365 – वर्णातीत है, तेरा आत्मा दृष्टि क्यों ?, चर्म वर्ण से।
366 – कुल्हाड़ी मिली, लेकिन बे दण्ड की, मूठ लगी है !
367 – गद्य-पद्य में, यमक नमक सा, सरस लाये।
368 – रवि शब्दों को, विलोम कर पढ़ो, वीर का दर्श।
369 – शास्त्र सुनाते, हरी से हरी बने, तुम तो नर।
370 – मोह का ताज, सब ने लगाये सो, मोहताज हैं।
371 – वैराग्य कली, ध्यान सूर्योदय में, खिले महके।
372 – समयसार, गाथा तेरी जीवन, गाथा को गाये।
373 – सुख-दु:ख के, आवेग को सम्हालें, वह योगी है।
374 – तेरी प्रवृत्ति, तुझे ही अद्य: उर्ध्व, मुखी बनाती।
375 – कवि है रवि, अन्तर-जगत को, रोपण करे।
376 – मैं एक बीज, जिससे घोर घने, जंगल बने।
377 – बिन कारण, कषाय करे पूर्व, जन्म का बैरी।
378 – गीली लकड़ी, जले कम धूम ही, ज़्यादा निकाले।
379 – वीतरागी की, आराधना किसी की, ना विराधना।
380 – हिंसा को करे, परिहार निज में , करे विहार।
381 – अहम का है, जहाँ वहम वहाँ, है ना रहम।
382 – पिंजड़े को ही, निज नीड़ समझे, पंच्छी ओ मूर्ख।
383 – लालसाओं में, ना लालसा स्व लाल, निजाधीन है।
384 – जहाँ संदेह, वहाँ दिल से दिल, फ़ासले दिखे।
385 – गुरुवाणी है, खुरमाणी क्यों नहीं, सुने नादानी।
386 – राहु ग्रसित, अनन्तानन्त सूर्य, दिखाई देते।
387 – रंग-बिरंगी, तरंगें उठ रही, अन्तरंग में। च
388 – पारदर्शक, जीवन हो काँच सा, दर्पण नहीं।
389 – देह दही को, दण्डित करे तो क्यों ? देह दासता।
390 – भक्त की भक्ति, सर्वोपरि जो सदा, प्रसन्नता में।
391 – चर्म में नहीं, शर्म शर्म का धाम, चर्म में छिपा।
392 – प्रदर्शन तो, प्रदुर्षण विकृत, हुआ दर्शन।
393 – अमां की रात, मार्दव का मनीका, रात पूनम।
394 – आकर्षण के, अभाव में जीवन, उत्कर्ष होगा।
395 – तू है चिन्मय, मृत्यु यतन में क्यों, तन्मय होता।
396 – मान शून्य हो, मानसून बरसे, शीतलमयी।
397 – लोक चूल पे, दीपक बिन ज्योति, अनन्त जले।
398 – उषा के पीछे, निशा नहीं अपेक्षा, उस उषा की।
399 – उर्ध्व के बाद, अंध: नहीं अपेक्षा, उस उर्ध्व को।
400 – चर्म में नहीं, शर्म शर्म का धाम, चर्म में छिपा।
401 – सन्त जीवन, बसन्त सा नाक भी, पतझड़ है।
402 – कटेली झाड़ी, काट के फलदार, वृक्ष लगायें।
403 – सन्तरा नहीं, अखण्ड सेव बनो, एक अखण्ड।
404 – नाना फूलों से, सुगंधित बगिया, शुचिमय है।
405 – सूर्योदय से, निशा का निशान भी, कहीं न दिखे।
406 – लगाम युक्त, अश्व सही मंज़िल, पहुँचाता है।
407 – क्षार नीर भी, मधुर बने करो, तपाराधना।
408 – त्यागा विभाव, दूध ने घृत रूप, स्वरुप पाया।
409 – शुद्ध घृत में, किंचित खटास का, अंश नहीं है।
410 – नाम का कीड़ा, नीम छोड़ आम्र में, रम जाता है।
411 – आराधना से, चिराग़ भी शीतल, निरोग बने।
412 – पूज्य नीरज, चरणों में नीरज, समर्पित है।
413 – कलंकित को, पुनीत बोध करे, सुनिकलंक।
414 – निर्मद पुष्प, जब खिले पावन, सौरभ बहे।
415 – हटाओ तुम, कर्मों का उपसर्ग, निसर्ग दिखे।
416 – निस्संग मुनि, पावन से निज में, विचरते हैं।
417 – हिम का खण्ड, अग्नि से घिरा हुआ, तो भी शीतल।
418 – कठिन लोहा, पारस से बनता, मृदु कनक।
419 – नि:स्वार्थ में है, सत्य-धर्म की शक्ति, सदा अजेय।
420 – जहाँ निर्दोष, पवन बहे वहाँ , ना प्रदूषण।
421 – निर्लोभ के ही, उर में सन्तोष का, कमल खिले।
422 – रत्न त्रय से, रोग धाम काया भी, निरोग बने।
423 – मोहित में ना, मोहित है कल्याण, निर्मोही में ही।
424 – पक्षपात से, परे निष्पक्ष से ही, आलोक मिले।
425 – नि:स्पृहता से, धर्म में अनुराग, वृद्धि होती है।
426 – मेरू समान, निश्चलता प्रत्येक, परिस्थिति में।
427 – जहाँ निष्कंप, ध्यान प्रदीप अघ, भस्मसात है।
428 – योगी योग में, लवलीन होते ही, योग निस्पंद।
429 – अध्यात्म मय, प्रमेश का जीवन, निरामय है।
430 – मुनिपद है, निरापद आपद, निवारता है।
431 – निराकुलता का, जीवन चंदन सा, महक उठे।
432 – संयम सान, पे चढ़े हीरा बने, निरुपम सा।
433 – निष्काम सन्त, आनन्द सागर में, सदा रमते।
434 – जैनागम के, श्रवण से जीवन, निरीह बने।
435 – पुरुषार्थ से, पुरुषार्थी निस्सीम, शान्ति पाते हैं।
436 – निर्ग्रन्थ सन्त, सप्त भयो से परे, निर्भिक रहे।
437 – जहाँ अपूर्ण, वहाँ परिवर्तन, पूर्ण में नहीं।
438 – जीवों की घातें, तो भी सदा पाप से, निर्लिप्त रहा।
439 – नत में ना है, मेहनत जीवन, बने उन्नत।
440 – प्रतिकार से, सँवर का ही जहाँ , सँवर होता।
441 – फ़रिस्त से ही, रिश्ता दुनिया से क्यों ? रहेगा रिश्ता।
442 – तेरी दर्श से, तेरी जैसी निज में, निज का दर्शन।
443 – तू है असीम, तन की ममता ने, सीमा में बाँधा।
444 – वस्तु स्वरुप, झलके समता के, दर्पण में ही।
445 – जिनका लक्ष्य, सँवर निर्जरा है, उन्हें क्या चिन्ता ?
446 – पूनम चाँद, बनो नहीं अमां की, रात बनना।
447 – प्रकृति से ही, प्रकृति चेतन की, विकृत हुई।
448 – अशुचि मय, पंक में सुरभित, पंकज खिले।
449 – जिस मान से, मान बढ़े वह ना, मान चाहता।
450 – ज्ञात होते हैं, विगत के विचार, कर्मोंदय से।
451 – अम्बर तज, दिगम्बर से पाये, चिदम्बर को।
452 – प्रकृति संग, पुरुष की प्रवृत्ति, विकृत हुई।
453 – शाब्दिक ज्ञान, म्यान है तलवार, शब्दातीत है।
454 – योद्धा नहीं है, लोहार हथियार, भले बनाये।
455 – नीचे उतारो, उबलते दूध को, तभी पी सको।