अनियत विहारी की सतत् यात्रा
चौक भी पुर गया पर नहीं रोक सका
उन क़दमों को जो थकते नहीं
जो रुकते नहीं,
न बंधते किसी मोह के धागे से,
न प्रभाबित होते किसी नारे से,
न किसी से होता कोई अनुबंध,
न रखते कोई आत्मीय सम्बन्ध,
न मानते किसी की कोई भी बात,
न निमंत्रण से जाते कोई आँगन,
न शिष्यों के समझते जज्वात,
न रुकते पेड़ की छाया में,
न ही उनका कोई बसेरा है,
न नींद है आँखों में,
न कोई सवेरा है,
न रूकती चलायमान कदमताल,
न पूछो अगले पड़ाव का सवाल,
चलने का सिलसिला तो,
उनका सतत् जारी है,
मेरा योगी ही तो,
अनियत विहारी है।
चौक भी पुर गया पर नहीं रोक सका
उन क़दमों को जो थकते नहीं
जो रुकते नहीं,
न बंधते किसी मोह के धागे से,
न प्रभाबित होते किसी नारे से,
न किसी से होता कोई अनुबंध,
न रखते कोई आत्मीय सम्बन्ध,
न मानते किसी की कोई भी बात,
न निमंत्रण से जाते कोई आँगन,
न शिष्यों के समझते जज्वात,
न रुकते पेड़ की छाया में,
न ही उनका कोई बसेरा है,
न नींद है आँखों में,
न कोई सवेरा है,
न रूकती चलायमान कदमताल,
न पूछो अगले पड़ाव का सवाल,
चलने का सिलसिला तो,
उनका सतत् जारी है,
मेरा योगी ही तो,
अनियत विहारी है।
आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के पावन चरणों में बारंबार नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु।
रचियता: एक गुरुभक्त
साभार: एल.एस.आर परिवार