औरंगजेब का नाम आते ही व्यक्ति के मानस पटल पर एक ऐसे शासक की तस्वीर उभर आती है जिसने भारत के कई देवालयों को क्रूरता से ध्वंस करवाया। लेकिन इसे आश्चर्य कहें या कुछ और कि राजस्थान में एक स्थान ऐसा भी है जहाँ मूर्ति भंजक औरंगजेब के समय में एक पूरे ही मन्दिर का निर्माण हुआ और वह स्थान है- दक्षिण-पूर्वी राजस्थान कोटा जंक्शन (कोटा) से ८ कि.मी. दक्षिण में स्थित झालावाड़ जिले के खानपुर कस्बे के निकट चाँदखेड़ी में। चाँदखेड़ी नामक यह स्थल व यहां का यह जैन मन्दिर मुख्यालय झालावाड़ से ३५ कि.मी.दूर पूर्व में बस मार्ग से सीधा जुड़ा हुआ है। जो रूपाली नदी के किनारे स्थित है।
इस मन्दिर के मूल गर्भगृह में एक विशाल तल-प्रकोष्ठ है जिसमें भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) की लाल पाषाण की पद्मासनावस्था की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। यह प्रतिमा इतनी अधिक मनोज्ञ है- मानो मुँह बोलती है। श्रवणबेलगोला के बाहुबली की प्रतिमा के उपरान्त भारत की दूसरी मनोज्ञ प्रतिमा है।
[१] दरअसल यह मुख्य प्रतिमा इस क्षेत्र से ६ मील दूर बारहा पाटी पर्वतमााला के एक हिस्से में बरसों से दबी हुई थी
[२] सागोंद निवासी किशनदास मड़िया बघेरवाल (तत्कालीन दीवान कोटा राज्य) को एक रात स्वप्न में बारहापाटी से प्रतिमा निकालने का संकेत मिला।
[३] तदनुरूप प्रतिमा बैलगाडी में रखकर सांगोद लाई जा रही थी कि मार्ग में रूपाली नदी पर हाथ-मुँह धोने के लिए गाड़ी रुकी। कुछ समय बाद बैल जोतकर गाड़ी चलाने का उपक्रम किया गया तो गाड़ी एक इंच भी न सरककर वहीं स्थिर हो गई। गाड़ी को खींचने के लिए कई बैलों का बल प्रयोग किया गया परन्तु वह निष्फल ही रहा। अत: नदी के पश्चिमी भू-भाग पर उक्त मन्दिर का निर्माण करवाया गया।
[४] उस समय बादशाह औरंगजेब ने अपने अधिकृत साम्राज्य में मन्दिर बनवाने की सख्त मनाही करवा रखी थी। उसने सैंकड़ों देवालयों को ध्वस्त करवा दिया था और जिन लोगों ने नये मन्दिर बनवाने का प्रयास किया उन पर अत्याचार किये जाते थे तब चाँदखेड़ी में मन्दिर बनाने की खबर औरंगजेब जैसे बादशाह से कैसे छिपी रह सकती थी ? परन्तु उस समय भारत के दक्षिणी प्रदेश के युद्धों में उलझा हुआ और राजपूतों के साथ उसकी कुछ वर्षों पूर्व ही लड़ाई हुई थी। इसके अलावा उसी समय कोटा के महाराव किशोर सिंह हाड़ा तन-मन से औरंगजेब के साथ युद्ध में साथ थे। इसी कारण से उसने चांदखेड़ी के निर्माणधीन मन्दिर की ओर ध्यान नहीं दिया। ठीक ऐसे समय में हाड़ौती में मन्दिर निर्माण का काम कोटा के शासकों के हेतु मुगल दरबार में प्रतिष्ठा का परिचायक है। उक्त जैन-मन्दिर वाला क्षेत्र कोटा राज्य के अधीन था। इसके पूर्व कोटा के हाड़ा राजपूत शासकों ने अकबर, जहांगीर शाहजहाँ व औरंगजेब जैसे शासकों के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर उनके पक्ष में युद्ध किये थे। इस कारण मुगल बादशाह कोटा के हाड़ा शासकों से काफी प्रभावित थे और उन्हें महत्वपूर्ण पद प्रदान किये थे। लेकिन फिर भी अजमेर का सूबेदार बार-बार अपने अहदियों को कोटा राज्य में भेजकर ताकीद किया करता था कि ‘‘मन्दिर बनवाना बंद किया जाये’’, इस समय चूंकि औरंगजेब सुदूर दक्षिण में था और अजमेर के सूबेदार को येन-केन प्रकारेण सन्तुष्ट रखना असंभव था फिर भी किशनदास मड़िया को रह-रह कर यह भय था कि किसी दिन यह मन्दिर न तुड़वा दे। इसलिए उन्होंने तरकीब से इस मन्दिर को विचित्र तरीके से मस्जिदा-ब्लेक रूप में निर्मित्त करवाया अर्थात् मूल मन्दिर जमीन के भू-गर्भ में ही बनवाया।
[५] क्षेत्र के द्वार से प्रवेश करने पर एक किलानुमा अहाता है जिसकी बाहरी बनावट मस्जिदाकार है, मूलत: यह उस समय मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचाव का प्रयास था, जिससे वे इसे मस्जिद समझकर न तोड़ सके। अहाते के मध्य समवशरण महावीर स्वामी के ‘केवल्य-ज्ञान’ की प्राप्ति के स्वरूप का मन्दिर है। इसमें आध्यात्मिकता के साथ प्रतिमा कला का भी सुन्दर अनुपमेय संगम है। इसकी प्रतिष्ठा आचार्य देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में सम्पन्न हुई थी। इस मन्दिर में ८ फीट ऊँचा ओर डेढ़ फीट संगमरमर का सुन्दर मानस्तम्भ है जिसके शीर्ष पर भगवान महावीर की तपस्या भाव की चर्तुमुखी प्रतिमा है। इसके नीचे महावीर की माता के सोलह स्वप्नों का अनुपम स्वप्न कथा संसार निर्मित्त है।
[६]इस मन्दिर के वैभव से अभिभूत हो जब विगत ७ सितम्बर १९८३ को राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल ओ.पी. मेहरा यहाँ आये तो उन्होंने इस मन्दिर के बारे में यह लिखा कि— ‘‘हमारी इच्छा होती है कि इस पावन स्थल पर हम बार-बार दर्शन हेतु आते रहें।’’ ऐसी मनोज्ञ प्रतिमा जिसमें भक्ति एवं शक्ति की सरस धारा निरन्तर प्रवाहित होती है, उनके दर्शन सौभाग्य से ही प्राप्त होते हैं और जिन्हें होते है उनका जीवन धन्य हो जाता है।[६]समवशरण के बाद के अहाते में यात्रियों को ठहरने के दर्जनों सुविधायुक्त हवादार कक्ष बने हुये हैं। इसी अहाते के मध्य यह विचित्र जैन मन्दिर बना हुआ है। इसके चारों कोने पर चार छत्रियां बनी हुई है। मन्दिर के मुख्य द्वारा पर एक चौखुटा व १० फीट ऊँचा कीर्तिस्तम्भ है इसमें चारों ओर दिगम्बर तीर्थंकरों की सुन्दर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। मध्य में एक ऊँचा अभिलेख है।[७] इसमें संवत् १७४६ की माघ शुक्ला को यहाँ पंचकल्याणक कराने का उल्लेख है। एक लेख में आमेर गादी के भट्टारक स्वामी जगत कीर्ति का पूरा लेख उत्काण्र् है। द्वितीय लेख भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति का है।
[८] मुख्य द्वारा के बाद मन्दिर अंत:भाग आता है। जो सचमुच में मन्दिर का मूल-भाग प्रतीत होता है। परन्तु ऐसा नहीं है और यह भूल-भूलैया ही इस मन्दिर की विचित्र निर्माण शैली है। मूलत: इस भाग में पंच-वेदियां एवं एक गन्धकुटी बनी हुई है। वेदियों में २४ तीर्थंकरों की मूर्तियाँ स्थापित हैं। मूल गंधकुटी में सुपाश्र्वनाथ स्वामी की पद्मासन प्रतिमा है। ये सभी एक चौकोर बरामदे में स्थापित है। इसी बरामदे में तीन वेदियाँ गर्भ ग्रह में हैं इसमें प्रथम वेदी में ३ पाषाण प्रतिमाएँ , द्वितीय में बाहुबली की ५ फीट की खड्गासन प्रतिमा है। जो कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। तीसरी और अन्तिम वेदी में आठ जैन प्रतिमाएँ है। इसी गर्भगृह के दाँयी ओर एक गुप्त मार्ग बना हुआ है जो मुख्य गर्भगृह को जाता है इसे ‘तल-प्रकोष्ठ’ कहा जाता है। यह प्रकोष्ठ ऊपर से २५ फीट नीचे भू-गर्भ में है। इस गर्भगृह में उतरनें पर बाँयी ओर की दीवार में चतर्मुखी चव्रेश्वरी देवी की सुन्दर प्रतिमा है जबकि सामने की दीवार पर चतुर्मुखी अंबिका की प्रतिमा है। गर्भ गृह के बाँयी ओर एक अन्य जैन खड्गासन प्रतिमा है। गर्भ-गृह के बाँयी ओर के निकट एक फलक में ५५ जैन प्रतिमाएँ दोनों ओर ध्यानासनों में प्रतिष्ठित हैं। इसी के मध्य मूल रूप तीर्थंकर महावीर स्वामी की अत्यन्त कलापूर्ण एवम् मनोज्ञ-प्रतिमा प्रतिष्ठित है।
मुख्य गर्भगृह में एक विशाल वेदी पर मूल नायक भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) की लाल पाषाण की पद्मासनावस्था तथा पद्मांजलि मुद्रा की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इसी अनुपम प्रतिमा के अधखुले नेत्रों एवं धनुषाकार भौहों का अंकन अत्यन्त मन-मोहक है। प्रतिमा के वक्ष पर ‘श्रीवत्स’ है एवं हाथ-पैरों में पदम बने हुए हैं। इसके दक्षिण पाद पर एकलेख भी उत्कीर्ण है।
[९] जिस पर विक्रम संवत् १७४६ वर्षे माघ सुदी ६ सोमवार को मूलसंघ भट्टारक स्वामी जगतकीर्ति द्वारा (खींचीवाड़ा में) चाँदखेड़ी के नेतृत्व में महाराव किशोर सिंह के राज्य में बघेरलाल वंशी भूपति संघवी किशनदास बघेरवाल द्वारा जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कराई जाना अंकित है। यह प्रतिमा ६.२५ फीट ऊूंची एवं ५ फीट चौड़ी है। इसके दर्शन करते ही मन में अपूर्व वीतरागता और भक्ति शांति के भाव उत्पन्न होते हैं। प्रतिमा का निर्माण काल अंकित नहीं है। मन्दिर के वाम स्थल पर एक अंकन लेख व प्रतिमा पर संवत् ५१२ अंकित है, परन्तु उसका मूल आधार अभी तक ज्ञात नहीं हो पाया है। हालांकि यह क्षेत्र अतिशयक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है।
झालारपाटन की प्राचीन और प्रख्यात फर्म बिनोदी राम-बाल चन्द्र के वंशज दिगम्बर जैन रत्न उद्योगपति श्री सुरेन्द्र कुमार सेठी का मानना है कि चांदखेड़ी को १८ वीं सदी में देश भर में वही स्थान प्राप्त था जो प्राचीन काल में अयोध्या, मथुरा श्रावस्ती और शत्रुंजय जैसे पवित्र स्थानों को था।
[१०]सारत: चांदखेड़ी के इस भव्य और औरंगजेब कालीन विचित्र जैन मन्दिर में जैन धर्म के सारे आयोजन बड़ी धूमधाम से मनाये जाते हैं। देश के सुदूर राज्यों से जैन धर्म के सैकड़ों परिवार एवं अब पर्यटक भी यहाँ आने लगे हैं। वे इस मन्दिर की विचित्र निर्माण शैली और सुन्दर प्रतिमा के दर्शन कर अपनी धार्मिक यात्रा और पर्यटक पूर्ण करते हैं। इस मन्दिर में करीब ५४६ जिनबिम्ब प्रतिष्ठित है।
[११] वर्तमान में मन्दिर में अनेक प्रकार के नवीन कार्य चल रहे हैं जिनसे यह मन्दिर और भी सुन्दर हो गया है। व्यक्ति है, वहाँ सृष्टि है। जहाँ सृष्टि है, वहाँ जीवन है, जहाँ आस्था है, वहाँ चमत्कार है। चमत्कारों की अविस्थिति कौतुहल पैदा करती है तो चमत्कारों का सिलसिला श्रद्धा को जन्म देता है। राजस्थान के झालावाड जिले के खानपुर कस्बे से जुडा हुआ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, चाँदखेडी भी ऐसी ही श्रद्धा का केन्द्र है। यह स्थान जयपुर-जबलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित झालावाड जिला मुख्यालय से पैंतीस कि.मी. दूर और राजस्थान के प्रमुख औद्योगिक नगर कोटा से 120 कि.मी. दूर स्थित है।
गर्भगृह में मूलनायक आदिनाथ की अवगाहन पद्मासन प्रतिमा प्रतिष्ठित है, जिसकी चरन चौकी पर संवत 512 अंकित है। ऊपरी तल पर पाँच वेदियां, एक गंधकुटी और कई छोटी-छोटी वेदियां हैं। इन वेदियों में तीर्थंकर की छोटी-बडी प्रतिमाओं के अलावा साधु और सीमन्दर स्वामी की प्रतिमा भी प्रतिष्ठित हैं। पूरे मन्दिर में 900 से अधिक जिनबिम्ब प्रतिष्ठित हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि मन्दिर का मुख्य शिखर गंधकुटी बना है, न कि मूलनायक भगवान ऋषभदेव की प्रतिष्ठा वाले गर्भगृह पर।
जिससे दो-तीन घंटों में ही हजारों लोग एकत्रित हो गये दोपहर 2:00 बजे मुनिश्री ने गुफा के रहस्य पर प्रवचन दिया तद्पश्चात मात्र पिच्छीधारी पूरे संघ ने गुफा में प्रवेश कर 4:19 मिनट पर लगभग पौने तीन फूट उतंग दिगम्बर जैन पद्मासन स्फटिक मणी, हीरा मणी, चन्द्रप्रभु भगवान, अरिहंत भगवान, पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा ऊपर ला कर मंडल में विराजमान की। इस चतुर्थकालीन अद्वितीय चैत्यालय के ऊपर आते ही सारी चाँदखेडी का आकाश श्री चन्द्रप्रभु एवं मुनिश्री सुधासागर जी महाराज की जयजयकार की ध्वनि से गुंजायमान हो गया, दर्शन करते ही दर्शनार्थियों के मुँह से एक ही आवाज निकल रही थी। महा अतिशय, अलौकिक, अद्वितीय दर्शन कर जीवन धन्य हो गया। मन्दिर के भीतर और बाहर एक ही नारा गूँज रहा था कि – “जैन प्रतिमा कैसी हो, चन्द्र प्रभु जैसी हो”, “गुरु का शिष्य कैसा हो, सुधा सागर जी महाराज जैसा हो” । तत्पश्चात प्रथम अभिषेक श्रेष्ठी श्री कस्तुरचन्द जैन (दोतडा वाले), रामगंजमंडी वालों ने किया। प्रथम महाशांतिधारा गौरव जैन, श्री अशोक पाटनी (आर. के. मार्बल ग्रुप) किशनगढ वालों ने की। मुनि श्री ने अपने प्रवचनों में कहा कि – “ ये इतिहासातीत चतुर्थकालीन महा अतिशयकारी जिनबिम्ब है। इन्हे नमस्कार कर के मेरा जीवन धन्य हो गया। मुनिश्री ने अपने प्रवचनों में बार-बार यह भावना व्यक्त की कि –
“गर हो जन्म दुबारा जिनधर्म ही मिले।
फिर यही जिनालय जिनवर शरण मिले”
मुनिश्री ने यह भी कहा कि – “यह चैत्यालय चैत्र बुदी नवमी अर्थात आदिनाथ जयंती दिन शनिवार संवत 2058 तक दर्शनार्थ ऊपर रहेगा। तत्पश्चात इसे यथा स्थान गुफा में विराजित कर दिया जायेगा”। इन पन्द्रह दिनों में सम्पूर्ण भारत से आये लगभग 15 से 20 लाख लोगों ने दर्शन कर अपना जीवन धन्य किया एवं 10 से 12 हजार लोगों ने अभिषेक कर अतिशय पुण्य बन्ध किया।
चैत्रबुदी दशमी दिन रविवार संवत 2058 को यथा समय चैत्यालय को गुफा में प्रदीप जी (अशोक नगर वालों) के प्रतिष्ठा चार्यत्व में शांति विधान पूर्वक मुनि संघ द्वारा विराजमान कर दिया गया तदुपरांत 19 दिन चैत्र शुक्ल त्रयोदशी महावेर जयंती के दिन शुक्रवार संवत 2059 की रात्रि में उसी दैव्य शक्ति ने मुनि श्री को तीसरी बार स्वप्न में आ कर नमोस्तु कर कहा कि – आपके मन में चाँदखेडी का इतिहास जानने की जो इच्छा है उसे सुनिये – मैं किशनदास “मडिया” बघेरवाल का जीव हूँ जो आपके स्वप्न में पहले भी दो बार आया, चतुर्थकालीन महा अतिशय आदि चन्द्रप्रभु भगवान आदि रत्न मयी प्रतिमाओं का आदिनाथ भगवान की प्रतिमाओं के साथ ला कर मैंने ही स्थापित करवाया था। आदि भगवान की प्रतिमा लाते समय टेक पर पछाड खा कर गिर गये, तब प्रतिमाजी को यहीं उतार कर उसी स्थान पर, यह मन्दिर मैंने बनवाया था। ये रत्नमयी प्रतिमायें आदिनाथ भगवान के ऊपरी मंजिल में 30 वर्ष तक विराजमान रही। बाद में मैंने ही इन्हे भू-गर्भ में विराजमान करवाया था। इन्ही चन्द्र प्रभु के नाम से ये स्थान चन्द्र प्रभु का बाडा कहलाता था जिसे आज चाँदखेडी के नाम से जाना आता है। इन रत्नमयी प्रतिमाओं को कभी भी स्थायी रूप से बाहर विराजमान नहीं किया जावे। मात्र सीमित समय के लिये ही दर्शनार्थ निकाल सकते हैं तथा बाद में संकल्पित तिथि के पूर्ण होने पर पुनः भू-गर्भ में ही विराजमान कर दिया जावे। परमपूज्य मुनिश्री जी को उस दैव्यशक्ति ने भविष्य में चैत्यालय किस विधि से निकाला जावे वह विधि भी बतायी जिसे कमेटी ने अलग से शिलालेख एवं ताम्रपत्र पर अंकित करा दी है। मुनिश्री ने स्वप्न में ही पुनः पूछा कि आप इस समय कहाँ हैं तो उसने इसका कोई उत्तर नहीं दिया और अदृष्य हो गया। हम सब भारतवासी श्रद्धालुजन परमपूज्य मुनि पुंगव 108 श्री सुधा सागर जी के अत्यंत उपकारी हैं। जिन्होने अपनी साधना एवं तपस्या से इस चाँद खेडी के इतिहास को जो कि शिलालेखों में एवं जनश्रुतियों में था उसे साक्ष्य में परिवर्तित कर दिया एवं ऐसी अलौकिक अकल्पनीय चतुर्थ कालीन महा अतिशयकारी महान पुण्य का बोध कराने वाली रत्नमयी प्रतिमाओ के दर्शन करवा कर सभी का जीवन धन्य किया। साथ ही जैन धर्म की ध्वजा को गगन की ऊँचाई तक पहुँचा दिया और इस अतिशय क्षेत्र को महाअतिशय क्षेत युगों युगों तक के लिये बना दिया मुनि श्री आप धन्य हैं।
श्रमन संस्कृति के रक्षक एवं तीर्थ जीर्णोद्धारक मुनि पुंगव 108 श्री सुधासागर जी महाराज का पुनः आगमन
आध्यात्मिक एवं दार्शनिक संत मुनि पुंगव 108 श्री सुधासागर जी महाराज ससंघ का श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन अतिशयकारी चाँदखेडी के मन्दिर में भव्यता के साथ पुनः मंगल प्रवेश दिनांक 31 दिसम्बर 2005 को डेढ कि.मी. लम्बी श्रद्धालुओं एवं पुण्यार्जकों की पद यत्रा के साथ हुआ। यह पदयात्रा दिनांक 27 दिसम्बर ,2005 को श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, नसियांजी, दादाबाडी, कोटा से प्रारम्भ हुई जिसमें सात हाथी, एक्यावन घोडे, एक गज रथ एवं एक जिनवाणी रथ था। बग्घी में कुबेर, हाथियों पर इन्द्र- इन्द्राणी तथा अश्वों पर आरूढ युवा इन्द्र अपने हाथों में धर्म ध्वजायें फहराते हुए चल रहे थे। महाराज 108 श्री सुधासागर जी शुभ आगमन से चाँदखेडी क्षेत्र धन्य हो उठा तथा सम्पूर्ण वातावरण जय-जय कार से गुंजायमान हो गया।
अलौकिक चमत्कार
वर्षों से स्थापित चाँदखेडी के अतिशय क्षेत्र के मूलनायक 1008 श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा जिसे रंचमात्र भी हिलाया नहीं जा सकता था, पर प्रतिमा कुछ नीचे होने के कारण स्पर्श दोष होता था। इस दृष्टि से इस मूलनायक प्रतिमा को आगे सरका कर वास्तु दोष का निवारण किया जाये ऐसा विचार बना। ऐसी स्थिति में मुनि श्री 108 श्री सुधासागर जी महाराज ने ध्यानस्थ हो कर कुछ अनुयायियों के सहयोग से इस 30 टन वजनी, सवा छः फीट लम्बी विशाल लाल पाषाण की प्रतिमा को सहजता के साथ पौने दो फीट आगे सरका दिया, इस अलौकिक घटना की चर्चा सम्पूर्ण क्षेत्र में बडी तेजी के साथ फैली जिससे यहाँ धर्मावलम्बियों का हुजूम उमड पडा।
महाराज श्री सुधासागर जी के सनिध्य में इस मूलनायक भगवान 1008 श्री आदिनाथ की मनोहरी प्रतिमा को सुन्दर कमल पर विधि के साथ विराजमान किया गया।
यही नहीं चाँदखेडी अतिशय क्षेत्र में भरने वाले “ऋषभ जयंती” के वार्षिक मेले का शुभारम्भ भी महाराज श्री के मंगल आशीर्वाद के साथ हुआ। जिसमे संभाग के हजारों जैन एवं अजैन मतावलम्बियों ने भाग ले कर वार्षिक मेले को ऊँचाईयों के सोपान दिये। महाराज जी के प्रवास के अंतर्गत उनकी सतत् प्रेरणा से भव्य वेदी प्रतिष्ठा का भी आयोजन अतिशय क्षेत्र पर हुआ। अतिशय क्षेत्र पर पधारें एवं श्री आदिनाथ भगवान के दर्शन कर अपनी मनोकामना को साकार करें।