लोग बँटते रहेंगे, पंथ बनते रहेंगे

जब-जब समाज व्यक्तिप्रधान होगा, तब-तब फूट पड़ती रहेगी, लोग बँटते रहेंगे, पंथ बनते रहेंगे। जब हम सर्वज्ञ सिद्धि पढ़ते थे तो उसमें दो प्रकार की सर्वज्ञ सिद्धि होती थी एक सामान्य सर्वज्ञ सिद्धि और दूसरी विशेष सर्वज्ञ सिद्धि।
         सामान्य सर्वज्ञ सिद्धि में तो ये सिद्ध करना होता कि इस दुनिया में सर्वज्ञ होते हैं और विशेष सर्वज्ञ सिद्धि में सिद्ध करना होता है कि वो सर्वज्ञ केवल अर्हन्त ही हैं अन्य नहीं।
       कई बार हम सोचते थे कि विशेष सर्वज्ञ सिद्धि में अर्हन्त ही सर्वज्ञ हैं ऐसा क्यों सिद्ध करते हैं?
अर्हन्त की जगह, आदिनाथ या महावीर सर्वज्ञ हैं ऐसा सिद्ध क्यों नहीं करते। न्यायशास्त्र में भी जैन मत को जब प्रदर्शित करना हो तो उसे आर्हत मत- आर्हत मत शब्द का प्रयोग किया जाता है। वहाँ भी आदिनाथ के या महावीर के मत में ऐसा कहा है इस प्रकार का प्रयोग क्यों नहीं किया जाता?
जैन धर्म में सर्वमान्य और हर जैनी की जुबान पर चढ़ा एक महामन्त्र उसमें भी महावीर,आदिनाथ या कुन्दकुन्द को नमस्कार न करके अर्हन्त,सिद्ध, साधु जैसे पदों को नमस्कार किया गया।
   जैन दर्शन का सर्वमान्य ग्रन्थ मोक्षशास्त्र उसके प्रणेता ने भी मंगलश्लोक में किसी व्यक्ति विशेष को नमस्कार न करके गुणों के माध्यम से अर्हन्त को नमस्कार किया है।
    जैनाचार्य परम्परा के प्रतिष्ठापक आचार्य भगवत कुन्दकुन्द देव ने भी परमागम समयसार के आदि में किसी व्यक्ति को नमस्कार नहीं किया।
   अब सवाल उठता है आखिर क्यों?
आखिर क्यों जैनाचार्यों ने न्यायशास्त्र आदि में, णमोकार मन्त्र में किसी व्यक्ति को नमस्कार न करके पदों को नमस्कार किया?
इसके अपने कई कारण हो सकते हैं। लेकिन मुझे एक कारण जो समझ में आता है वो ये की वे किसी व्यक्ति को महत्व नहीं देना चाहते थे। क्योंकि जैनदर्शन व्यक्तिप्रधान नहीं बल्कि गुणप्रधान है।
ये तो हुई बात हमारे पूर्वजों द्वारा व्यक्ति को महत्व न देने की।
अब जरा हम वर्तमान परिस्थितियों पर दृष्टिपात करते हैं।
चन्द्रगुप्त के स्वप्न और उन स्वप्नों के जो फल हम सभी ने सुन रखे हैं वे शतप्रतिशत सत्य होते दिखाई दे रहे हैं। और हों भी क्यों न आखिर वे क्रमबद्ध ही तो हैं।
भावी जीवन की घोषणाओं के उन स्वप्नों में एक स्वप्न ये भी था कि जैन धर्म पहले सूर्य की भाँति तथा अन्य धर्म जुगनू की भाँति होंगे। तथा बाद में जैन धर्म जुगनू की भाँति तथा अन्य धर्म सूर्य की भाँति होंगे।
चंद्रगुप्त के बाद जैनधर्म एक से दो में विभाजित हो गया -दिगम्बर और श्वेताम्बर। फिर उनमें भी तेरापंथी-बीसपंथी। स्थानकवासी- तारणपंथी और न जाने कितने कितने भेद होते ही गये और वर्तमान में होते भी जा रहे हैं।
इन सबके पीछे यदि हम देखें तो इसका एक प्रमुख कारण दिखाई देता है वो है व्यक्ति को महत्व देना।
   दुनिया में जब भी किसी व्यक्ति को अतिरेक के साथ महत्व दिया गया है तब तब एक नये पंथ की शुरुआत और एक नये ईश्वर की उत्पत्ति हुई है।
व्यक्ति को महत्व मिलने का भी एक प्रमुख कारण है कि जब कोई व्यक्ति समाज की भलाई के लिए कुछ करता है तब लोग उसके गुणों से प्रभावित हो जाते हैं और उसकी विचारधारा के अनुसार एक नया पन्थ जन्म ले लेता है।
     अगर हम देखें कि श्रीकृष्ण तो एक महापुरुष मात्र थे फिर वे भगवान के रूप में कैसे पूजे जाने लगे। तो इसका उत्तर ये हो सकता है कि लोगों की भलाई के लिए उन्होंने जो काम किये अथवा जो सामान्य मनुष्यों में गुण नहीं दिखाई देते ऐसे गुणों को श्रीकृष्ण में देखकर लोगों ने उनमे ईश्वरीय गुणों की या ईश्वरत्व की कल्पना कर ली हो। उनके स्टेच्यू बनवा दिए हों फिर लोगों ने उनके सम्मान में फूलमाला चढ़ाई हो और वो फूलमाला आज केवल फूल चढ़ाने मात्र की रह गयी है और वो फूल चढ़ाना सम्मान मात्र न होकर पूजा- अर्चना बन गया। और इस प्रकार एक महापुरुष भगवान बनकर पूजे जाने लगे।
ठीक कुछ ऐसा ही गौतमबुद्ध, ईशामसीह, गुरुनानक देव या साँई बाबा के संदर्भ में भी हुआ होगा। उन्होंने समाज की भलाई के कुछ काम किये और लोग उनमें ईश्वरीय तत्व की कल्पना करके उन्हें पूजने लगे।
अब इसे हम जैन धर्म के सम्बंध में भी समझ सकते हैं।
जब तक हम केवल एक अर्हन्त की बात करते हैं तब तक सब एक रहते हैं ।लेकिन जब उन्हीं अर्हन्त की बात को जन-जन तक पहुंचाने के लिए कुछ महापुरुष जन्म लेते हैं और जनकल्याण के लिए लोगों तक अर्हन्त की वाणी पहुँचाते हैं तब लोग उनके भी स्टेच्यू बना देते हैं और वो दिन भी दूर नहीं जब उनको भगवान की तरह पूजा जाएगा।
इसके पीछे कारण एक ही है व्यक्ति को अतिरेक के साथ महत्व देना। यदि किसी व्यक्ति ने समाज के लिए कुछ अच्छा किया है तो निश्चित रूप से वो महान है लेकिन उसे ईश्वर से ज्यादा महत्व देना कहाँ की समझदारी है।
जब जब आप किसी व्यक्ति को महत्व देते जायेंगे लोग बँटते जायेंगे और पंथ बनते जायेंगे और ऐसा होगा भी क्योंकि चंद्रगुप्त के स्वप्नों में यह पहले ही आ चुका हैं।
वर्तमान में जैनधर्म में जितने भी भेद हमें देखने में आ रहे हैं वे किसी एक व्यक्ति विशेष को अत्यधिक महत्व देने की वजह से देखने में आ रहे हैं। और आगे भी अनेक भेद देखने में आ सकते हैं उनके पीछे भी कारण यही होगा कि जब हम किसी एक व्यक्ति के सम्पर्क में ज्यादा रहते हैं तो निश्चित रूप से हम उसके गुणों से, उसकी विचारधारा से प्रभावित होते ही है। और हमें ऐसा लगने लगता है कि बस दुनिया में एक यही व्यक्ति श्रेष्ठ विचारों वाला है। यही सही है।
उसकी महिमा हमारे दिलोदिमाग में इस कदर चढ़ जाती है कि हम उसे ईश्वर से ज्यादा महत्व देने लगते हैं।
वर्तमान में कुछ तथाकथित स्वयं को ही महापुरुष बताने वाले, महापुरुषों का विशेष कृपापात्र या महापुरुष का पुनरावतार बताने वाले लोगों की अधिकता भी होती का रही है जिससे और भी अनेक मत बनते नजर आ रहे हैं।
लेकिन हमें ये विचार करना होगा कि जब इतिहास में आदिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर जैसे महापुरुषों को भी महत्व न देकर अर्हन्त और साधु जैसे पदों को महत्व दिया गया इसलिए जैन धर्म सुरक्षित रहा। लेकिन अब हम व्यक्तियों को ज्यादा महत्व देने लगे हैं, उनकी विचारधाराओं में मतभेद होने के कारण नये नये मत पनपते जा रहे हैं। अभी तो ये शुरुआत है। यदि हम व्यक्तिप्रधानी ही बने रहे तो अपने सामने ही कम से कम 50 और पंथ बने हुए देखेंगे।
जैन धर्म के वक्ताओं को भी चाहिए कि वे व्यक्ति प्रधानी होकर न बोलें, जिनागम के आलोक में ही मूलाधार को लेकर बोलें,जिससे लोग सही राह पर रहें। खैर हम व्यक्ति प्रधानी न होकर गुणप्रधानी बनेंगे, एक मात्र देव-शास्त्र-गुरु को मानेंगे उनको ही महत्व देंगे तभी हम एक रह सकते हैं जैन धर्म एक रह सकता है। पर ऐसा होना जरा मुश्किल है क्योंकि चंद्रगुप्त के स्वप्नों को तो आप नहीं झुठला सकते।
साभार: निलय शास्त्री बरायठा